Monday, September 15, 2014

लड़की की किशोरावस्था अभिशाप ? Teenage Difference between Boy and a Girl

लड़की किशोरावस्था में पहुंची नहीं कि ज़माने भर की गिद्ध निगाहें उसे नोच खाने को तैयार हो जाती हैं. ऐसा नहीं कि ये गिद्ध निगाहें सिर्फ़ अनजान मर्दों की होती हैं, इसमें पड़ोसी वर्मा जी और शर्मा जी के लड़के, ख़ुद वर्मा जी और शर्मा जी, लड़की की सहेली का भाई, चचेरे-फुफेरे भाई, नुक्कड़ पे चायवाला, पानवाला, किराना स्टोर वाला जैसे रोज़ के भलीभांति परिचित भेड़िये भी होते हैं.
- कब लड़की का खेलना-कूदना बंद हो जाता है, उसकी बेपरवाह चाल कब संयमित बना दी जाती है और कब उसके फ्रॉक की जगह सलवार-समीज ले लेती है उसे पता भी नहीं चलता.
- कब उसे माँ से ये हिदायत मिलने लगती है कि दुपट्टे से अपना वक्षस्थल हमेशा ढके रहना. उसके ठीक-ठीक जानने समझने के पहले ही उसकी ठहाकेदार हंसी को सिर्फ़ लाज शरम मुस्कुराने और शर्मो-हया तक सीमित कर दिया जाता है.
- कब उसके घर से बाहर आने-जाने का समय तय कर दिया जाता है लेकिन उसके भाई पे ऐसी कोई पाबंदी नहीं बल्कि उल्टे और घूमने फिरने और दुनियादारी समझने की अनकही छूट मिल जाती है.
- जब तक वो ये सब सब समझ में आये तब तक वह संस्कार, घर की इज़्ज़त व मान-मर्यादा के आदर्शों में जकड़ी जा चुकी होती है जिसका वो चाह कर भी प्रतिवाद नहीं कर पाती.

जहां उम्र बढ़ने के साथ जहां एक ओर लड़कों की आज़ादी और घर में उनकी इम्पोर्टेंस बढ़ती जाती है वहीं दूसरी तरफ़ लड़कियों की आज़ादी छिनती जाती है, वो लाडली बेटी से मुट्ठी में बंद एक गरम अरवी और अनचाहा बोझ में तब्दील होने लगती हैं माँ-बाप के लिए! रही बात सुरक्षा की.....तो वो उम्र के किसी भी पड़ाव पे सुरक्षित नहीं होतीं.

क्या आपको नहीं लगता कि इस समाज को बदलना चाहिए ? धन्य हैं वो माँ-बाप जो बेटे-बेटियों में फ़र्क नहीं करते!

 

एक कविता इसी परिपेक्ष में  


हर रोज कई तितलियों के पंख मरोड़े जाते हैं।
हर रोज किसी हिरणी पर कुत्ते छोड़े जाते हैं ।
हर रोज कई कलियों को माली खुद मसल देता है।
हर रोज किसी चिड़िया के अरमां गिद्ध कुचल देता है।

रोज कहीं मोरनी को भेड़िये नोंच नोंच खा जाते हैं।
देख अकेली कोयल कौए उठा चोंच आ जाते हैं।
कहीं छह माह की बेटी की इज्जत से खेला जाता है।
पहली कक्षा की बच्ची को धंधे में ठेला जाता है।

नन्ही बिटिया अब बापू संग रहने से कतराती है।
भाई का चेहरा देख कर भी मन ही मन घबराती है।
नारी को वस्तु बतलाने का जतन रोज होता जाता है।
स्त्री पूजा वाली संस्कृति का पतन रोज होता जाता है।

जहाँ द्रोपदी के चीर हरण पर महाभारत हो जाती थी।
और सीता के अपहरण पर लंका गारत हो जाती थी।
जहाँ पद्मावती न दिखलाने को रतनसिंह अड़ जाते थे।
अस्मिता की रक्षा खातिर खिलजी से लड़ जाते थे।

उस भारत में ये हाल कि दुष्कर्मियों का राज हुआ।
बेटी मार लटकाने वालों के सिर मुखिया का ताज हुआ।
नेताओं को परोसी बेटी मुट्ठी कस कर रह जाती है।
लोकलाज के नाम सारे कुकृत्यों को सह जाती है।

ऐसे हालातों में भी प्रशासन कुछ नहीं कर पाता है।
इन लोगों का रौब देख कर लोकतंत्र डर जाता है।
क़ानून फिर से मध्य काल के यहाँ चलाओ तो बात बने।
कैंडल नहीं, इन लोगों की चिता जलाओ तो बात बने।

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