Monday, September 15, 2014

लड़की की किशोरावस्था अभिशाप ? Teenage Difference between Boy and a Girl

लड़की किशोरावस्था में पहुंची नहीं कि ज़माने भर की गिद्ध निगाहें उसे नोच खाने को तैयार हो जाती हैं. ऐसा नहीं कि ये गिद्ध निगाहें सिर्फ़ अनजान मर्दों की होती हैं, इसमें पड़ोसी वर्मा जी और शर्मा जी के लड़के, ख़ुद वर्मा जी और शर्मा जी, लड़की की सहेली का भाई, चचेरे-फुफेरे भाई, नुक्कड़ पे चायवाला, पानवाला, किराना स्टोर वाला जैसे रोज़ के भलीभांति परिचित भेड़िये भी होते हैं.
- कब लड़की का खेलना-कूदना बंद हो जाता है, उसकी बेपरवाह चाल कब संयमित बना दी जाती है और कब उसके फ्रॉक की जगह सलवार-समीज ले लेती है उसे पता भी नहीं चलता.
- कब उसे माँ से ये हिदायत मिलने लगती है कि दुपट्टे से अपना वक्षस्थल हमेशा ढके रहना. उसके ठीक-ठीक जानने समझने के पहले ही उसकी ठहाकेदार हंसी को सिर्फ़ लाज शरम मुस्कुराने और शर्मो-हया तक सीमित कर दिया जाता है.
- कब उसके घर से बाहर आने-जाने का समय तय कर दिया जाता है लेकिन उसके भाई पे ऐसी कोई पाबंदी नहीं बल्कि उल्टे और घूमने फिरने और दुनियादारी समझने की अनकही छूट मिल जाती है.
- जब तक वो ये सब सब समझ में आये तब तक वह संस्कार, घर की इज़्ज़त व मान-मर्यादा के आदर्शों में जकड़ी जा चुकी होती है जिसका वो चाह कर भी प्रतिवाद नहीं कर पाती.

जहां उम्र बढ़ने के साथ जहां एक ओर लड़कों की आज़ादी और घर में उनकी इम्पोर्टेंस बढ़ती जाती है वहीं दूसरी तरफ़ लड़कियों की आज़ादी छिनती जाती है, वो लाडली बेटी से मुट्ठी में बंद एक गरम अरवी और अनचाहा बोझ में तब्दील होने लगती हैं माँ-बाप के लिए! रही बात सुरक्षा की.....तो वो उम्र के किसी भी पड़ाव पे सुरक्षित नहीं होतीं.

क्या आपको नहीं लगता कि इस समाज को बदलना चाहिए ? धन्य हैं वो माँ-बाप जो बेटे-बेटियों में फ़र्क नहीं करते!

 

एक कविता इसी परिपेक्ष में  


हर रोज कई तितलियों के पंख मरोड़े जाते हैं।
हर रोज किसी हिरणी पर कुत्ते छोड़े जाते हैं ।
हर रोज कई कलियों को माली खुद मसल देता है।
हर रोज किसी चिड़िया के अरमां गिद्ध कुचल देता है।

रोज कहीं मोरनी को भेड़िये नोंच नोंच खा जाते हैं।
देख अकेली कोयल कौए उठा चोंच आ जाते हैं।
कहीं छह माह की बेटी की इज्जत से खेला जाता है।
पहली कक्षा की बच्ची को धंधे में ठेला जाता है।

नन्ही बिटिया अब बापू संग रहने से कतराती है।
भाई का चेहरा देख कर भी मन ही मन घबराती है।
नारी को वस्तु बतलाने का जतन रोज होता जाता है।
स्त्री पूजा वाली संस्कृति का पतन रोज होता जाता है।

जहाँ द्रोपदी के चीर हरण पर महाभारत हो जाती थी।
और सीता के अपहरण पर लंका गारत हो जाती थी।
जहाँ पद्मावती न दिखलाने को रतनसिंह अड़ जाते थे।
अस्मिता की रक्षा खातिर खिलजी से लड़ जाते थे।

उस भारत में ये हाल कि दुष्कर्मियों का राज हुआ।
बेटी मार लटकाने वालों के सिर मुखिया का ताज हुआ।
नेताओं को परोसी बेटी मुट्ठी कस कर रह जाती है।
लोकलाज के नाम सारे कुकृत्यों को सह जाती है।

ऐसे हालातों में भी प्रशासन कुछ नहीं कर पाता है।
इन लोगों का रौब देख कर लोकतंत्र डर जाता है।
क़ानून फिर से मध्य काल के यहाँ चलाओ तो बात बने।
कैंडल नहीं, इन लोगों की चिता जलाओ तो बात बने।

आधुनिक मनुष्य अभी तक अस्तित्व में आया ही नहीं : ओशो | Human is still not modernized

आधुनिक मनुष्य अभी तक अस्तित्व में आया ही नहीं है। दुनिया के सभी लोग बहुत पुरातन और बहुत प्राचीन हैं। किसी भी समकालीन व्यक्ति से भेंट कर पाना बहुत दुर्लभ है। कोई दस हजार वर्ष पूर्व स्थापित किए गए धर्म से संबंधित है, कोई दो हजार वर्ष पूर्व स्थापित किए गए धर्म से जुड़ा है--ये लोग समकालीन नहीं हैं। ये लोग आधुनिक युग में तो रह रहे हैं, पर ये आधुनिक हैं नहीं।

और इसी कारण एक बड़ी समस्या पैदा हो गई है: तकनीकी और वैज्ञानिक प्रगति की आवश्यकता है, जिससे कि आधुनिक मनुष्य इसका उपयोग करे और आधुनिक मनुष्य उपलब्ध है नहीं। टेक्नॉलजी, प्रौद्योगिकी उपलब्ध है, विज्ञान उपलब्ध है, लेकिन वे व्यक्ति जो इसका रचनात्मक उपयोग कर सकें, उपलब्ध नहीं हैं।
फलतः परिणाम विनाशकारी सिद्ध हुए हैं। क्योंकि इन लोगों को जो समकालीन नहीं हैं, विज्ञान ने तकनीकी यंत्र, मशीनें दे दी हैं जो कि खतरनाक हैं। यह बच्चे के हाथ में तलवार दे देने जैसा है: वह दूसरे को या स्वयं को ही घायल कर रहा है; वह तलवार चलाना नहीं जानता है, वह इसके लिए प्रशिक्षित नहीं है।

आदमी पीछे रह गया है और टेक्नॉलजी उससे बहुत आगे निकल गई है। वह नहीं जानता कि इसका क्या करे, इसका उपयोग कैसे करे, और जो कुछ भी वह करेगा वह गलत होने ही वाला है। परमाणु ऊर्जा मनुष्यता के लिए एक बड़ा वरदान बन सकती थी। यह संपूर्ण गरीबी को दूर कर सकती थी। लेकिन गरीबी हटाने की जगह, मनुष्य के जीवन को समृद्ध बनाने की जगह, इसने हिरोशिमा और नागासाकी में निर्दोष लोगों को नष्ट कर दिया, जिन्होंने किसी का कुछ भी नहीं बिगाड़ा था और अब तो वे परमाणु बम जिन्होंने नागासाकी और हिरोशिमा को नष्ट कर दिया था, खिलौनों की भांति हैं, क्योंकि अब तो हमारे पास परमाणु अस्त्र इतने शक्तिशाली हैं कि वे पूरी की पूरी पृथ्वी को सात सौ बार नष्ट कर सकते हैं।

आधुनिक तकनीक और विज्ञान ने आदमी को भ्रष्ट नहीं किया है। आदमी आधुनिक विज्ञान और टेक्नॉलजी को सही ढंग से उपयोग करने में समर्थ नहीं है। आधुनिक मनुष्य अभी पैदा ही नहीं हुआ है।

मुझे एच.जी.वेल्स का स्मरण आता है जिसकी गणना दुनिया के सर्वश्रेष्ठ इतिहासविदों में की जाती है। जब उसकी पुस्तक प्रकाशित हुई, किसी इंटरव्यू लेने वाले ने उससे पूछा: 'सभ्यता के बारे में आपका क्या विचार है?' एच.जी. वेल्स ने कहा: 'मेरा विचार? सभ्यता एक अच्छा विचार है, परंतु अभी तो यह होनी है। अभी तो यह एक विचार ही है, किसी को तो इसे वास्तविक बनाना ही चाहिए।' टेक्नॉलजी और विज्ञान समस्याएं नहीं हैं। समस्या है अविकसित मनुष्य। मगर हम भी विचित्र लोग हैं। हम सदा विचित्र ढंग से सोचते हैं।

महात्मा गांधी सोचते थे कि यदि चरखे के बाद मनुष्य और उसकी बुद्धि द्वारा विकसित सारे विज्ञान और टेक्नॉलजी को समुद्र में डुबो दिया जाए, तब सारी समस्याएं हल हो जाएंगी। और मजेदार बात इस देश ने उनका विश्वास कर लिया! और न केवल इस देश ने बल्कि दुनिया में लाखों लोगों ने उनका विश्वास कर लिया कि चरखा सारी समस्याओं का समाधान कर देगा।

रेलगाड़ियों को रोक दिया जाना चाहिए, हवाई जहाजों को रोक दिया जाना चाहिए, डाकघरों को बंद कर देना चाहिए, तार, टेलीफोन को नष्ट कर देना चाहिए--क्योंकि ये सभी चीजें चरखे के बाद आई हैं। सच तो यह है कि कोई नहीं जानता कि क्या बचाया जा सकता है। बिजली?--नहीं। चिकित्सा विज्ञान ?
- नहीं।

सच तो यह है कि यह मालूम करना पड़ेगा कि चरखे का आविष्कार कब किया गया...शायद बैलगाड़ी बचाई जा सके, आग बचाई जा सके...बस इतना ही: आग, बैलगाड़ी और चरखा, और फिर हर व्यक्ति महात्मा है--और सारी समस्याएं अपने से ही समाप्त हो जाती हैं।

टेक्नॉलजी का तो सवाल ही नहीं है। यही तो महात्मा गांधी भी जोर दे रहे थे कि टेक्नॉलजी ही मनुष्य को भ्रष्ट कर रही है। मेरी लड़ाई महात्मा गांधी से इसी बात पर है कि मनुष्य ही अविकसित है, मनुष्य की टेक्नॉलजी का सही उपयोग करने में समर्थ नहीं है। टेक्नॉलजी कैसे मनुष्य को भ्रष्ट कर सकती है? क्या तुम सोचते हो कि यदि महावीर आ जाएं, और एक बंदूक देख लें, बंदूक महावीर करे भ्रष्ट कर देगी, और वह इधर-उधर गोली चलाना प्रारंभ कर देंगे, इस तरफ और उस तरफ, क्योंकि बंदूक ने उनको भ्रष्ट कर दिया है।

तकनीक किसी को भ्रष्ट नहीं कर सकती। तकनीक तो बस एक साधन है तुम्हारे हाथों में, और तुम इससे जो बनाना चाहो बना सकते हो। चिकित्सा विज्ञान सोचता है कि मनुष्य तीन सौ वर्ष तक जी सकता है: बुढ़ापे से बचा जा सकता है, बीमारियां समाप्त की जा सकती हैं, आदमी तीन सौ वर्ष तक जवान, स्वस्थ जी सकता है। पर उस ओर कोई उत्सुक नहीं है, कोई राजनीतिज्ञ उसमें उत्सुक नहीं है। उनकी उत्सुकता है कि मृत्यु-किरणें कैसे निर्मित की जाएं।

और यदि मृत्यु किरणें निर्मित की जा सकती हैं, तो क्या तुम सोचते हो कि यह अकल्पनीय है कि जीवन-किरणें भी निर्मित की जा सकें? वही प्रतिभा, वही वैज्ञानिक जो मृत्यु किरणें बना सकता है, वह जीवन किरणें बनाने में भी समर्थ है। लेकिन जीवन-किरणों को तो कोई भी नहीं चाह रहा है। मांग तो मृत्यु-किरणों की है, और जहां तक संभावना है, सोवियत संघ और अमरीका दोनों ही के पास मृत्यु किरणें हैं भी। फिर परमाणु बम के साथ मिसाइल छोड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है; मृत्यु-किरणों को एक विशेष दिशा में निर्देशित किया जा सकता है, और वे मनुष्यों से उन्हें इस भांति मारते हुए गुजरेंगी... वे किसी और चीज को नष्ट नहीं करेंगी।

तुम्हारा फर्नीचर, तुम्हारे घर, तुम्हारी कारें बच जाएंगी -- वे केवल जीवन को विनष्ट करेंगी। कैसी अदभुत दुनिया है। अगर मृत्यु-किरणें प्रयोग में लाई जाएं, घर खड़े रहेंगे, कारें रहेंगी, रेलगाड़ियां रहेंगी; बस जीवन कहीं नहीं होगा। जीवन समाप्त हो जाएगा।

क्या टेक्नॉलजी मनुष्य को भ्रष्ट कर रही है? नहीं, इस गांधीवादी विचार से मैं सहमत नहीं हूँ। मैं आशा करता हूं कि हम जीवन-किरणें निर्मित कर सकेंगे, ताकि जीवन किरणें यदि किसी गांव से होकर गुजरें, सारा गांव जवान, जीवन से भरपूर हो जाए। लेकिन धर्म मेरे विचार को पसंद नहीं करेंगे, क्योंकि फिर तो बूढ़े लोग भी प्रेम में पड़ना प्रारंभ कर देंगे। जीवन किरणें?--कोई धर्म तैयार न होगा। मृत्यु किरणें बिलकुल ठीक हैं।

वेटिकन से गुजरती जीवन-किरणें...पोप किसी स्त्री के प्रेम में पड़ जाता है, और डिस्को में नृत्य करना प्रारंभ कर देता है, एक स्त्री मित्र ढूंढ लेता है। जहां तक मेरा संबंध है, मैं तो यह हो जाना बहुत पसंद करूंगा। कंटेम्प्रेरी, समकालीन मनुष्य को अस्तित्व में लाना है। वही मेरा काम है। यही कारण है कि हर कोई मेरे विरुद्ध है--क्योंकि वे लोग समकालीन नहीं हैं। मैं हर किसी के विरुद्ध एक लड़ाई लड़ रहा हूं, क्योंकि यहां पर इस दुनिया में पुराने, प्राचीन, मृत कंकाल हैं...

तुम्हें दिल का दौरा पड़ता है - कितने लोग दिल के दौरे से मरते हैं और अब प्रयोगात्मक रूप से तुम्हारे दिल को प्लास्टिक के दिल से बदलना संभव है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम्हारा प्रेम भी प्लास्टिक जैसा हो जाएगा, बल्कि तुम्हारा दिल इतना मजबूत हो जाएगा कि इसके भूल हो जाने की कोई संभावना ही न रहेगी। मनुष्य का शरीर हर संभव तरीके से सुधारा जा सकता है। प्लास्टिक सर्जरी लोगों को इतना सुंदर बना सकती है जिसकी कि कल्पना भी नहीं की जा सकती।

लेकिन राजनैतिक और धार्मिक मूढ़ बस इसी बात में उत्सुक हैं कि विनाश कैसे किया जाए। मनुष्य को दीर्घायु बनाने में, मनुष्य को जवान, चिरयुवा, लपूर्ण, आनंदित बने रहने देने में उनकी उत्सुकता नहीं है। वे इस पृथ्वी को उत्सव, आनंद, गीत और नृत्य का स्थल नहीं बनने देना चाहते; और वे मनुष्यता को इतना समय भी नहीं देना चाहते कि वह अस्तित्व के नये-नये आयामों में विकसित हो सके। वे पुरानी, तिथि-बाह्य मनुष्यता से पूरी तरह संतुष्ट हैं।

इसलिए मैं फिर दोहराता हूं: नया आदमी, समकालीन आदमी अभी संसार के रंगमंच पर नहीं आया है। हमें उसके आगमन की घोषणा करनी है।

Tuesday, September 9, 2014

Truth of Sarvepalli Radhakrishnan | Reality of Teachers' Day

पूर्व राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की जयंती प्रतिवर्ष 5 सितंबर को 'शिक्षक दिवस' के रूप में मनाई जाती है। इन दिनों जब शिक्षा की गुणात्मकता का ह्रास होता जा रहा है और गुरु-शिष्य संबंधों की पवित्रता को ग्रहण लगता जा रहा है, उनका पुण्य स्मरण फिर एक नई चेतना पैदा कर सकता है। जब वे राष्ट्रपति बने थे, तब कुछ शिष्य और प्रशंसक उनके पास गए थे। उन्होंने उनसे निवेदन किया था कि वे उनके जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाना चाहते हैं। उन्होंने कहा, 'मेरे जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाने से निश्चय ही मैं अपने को गौरवान्वित अनुभव करूँगा।' तब से 5 सितंबर सारे देश में शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जा रहा है।

शिक्षा के क्षेत्र में डॉ. राधाकृष्णन ने जो अमूल्य योगदान दिया वह निश्चय ही अविस्मरणीय रहेगा। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। यद्यपि वे एक जाने-माने विद्वान, शिक्षक, वक्ता, प्रशासक, राजनयिक, देशभक्त और शिक्षा शास्त्री थे, तथापि अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में अनेक उच्च पदों पर कामकरते हुए भी शिक्षा के क्षेत्र में सतत योगदान करते रहे। उनकी मान्यता थी कि यदि सही तरीके से शिक्षा दी जाए तो समाज की अनेक बुराइयों को मिटाया जा सकता है।

डॉ. राधाकृष्णन कहा करते थे कि मात्र जानकारियाँ देना शिक्षा नहीं है। यद्यपि जानकारी का अपना महत्व है और आधुनिक युग में तकनीक की जानकारी महत्वपूर्ण भी है तथापि व्यक्ति के बौद्धिक झुकाव और उसकी लोकतांत्रिक भावना का भी बड़ा महत्व है। ये बातें व्यक्ति को एक उत्तरदायी नागरिक बनाती हैं। शिक्षा का लक्ष्य है ज्ञान के प्रति समर्पण की भावना और निरंतर सीखते रहने की प्रवृत्ति। वह एक ऐसी प्रक्रिया है जो व्यक्ति को ज्ञान और कौशल दोनों प्रदान करती है तथा इनका जीवन में उपयोग करने का मार्ग प्रशस्त करती है। करुणा, प्रेम और श्रेष्ठ परंपराओं का विकास भी शिक्षा के उद्देश्य हैं।

वे कहते थे कि जब तक शिक्षक शिक्षा के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध नहीं होता और शिक्षा को एक मिशन नहीं मानता तब तक अच्छी शिक्षा की कल्पना नहीं की जा सकती। उन्होंने अनेक वर्षों तक अध्यापन किया। एक आदर्श शिक्षक के सभी गुण उनमें विद्यमान थे। उनका कहना था कि शिक्षकउन्हीं लोगों को बनाया जाना चाहिए जो सबसे अधिक बुद्धिमान हों। शिक्षक को मात्र अच्छी तरह अध्यापन करके ही संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए। उसे अपने छात्रों का स्नेह और आदर अर्जित करना चाहिए। सम्मान शिक्षक होने भर से नहीं मिलता, उसे अर्जित करना पड़ता है।

शिक्षक का काम है ज्ञान को एकत्र करना या प्राप्त करना और फिर उसे बांटना। उसे ज्ञान का दीपक बनकर चारों तरफ अपना प्रकाश विकीर्ण करना चाहिए। सादा जीवन उच्च विचार की उक्ति को उसे अपने जीवन में चरितार्थ करना चाहिए। उसकी ज्ञान गंगा सदा प्रवाहित होती रहनी चाहिए। उसे 'गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुदेवो महेश्वरः/ गुरु साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः' वाले श्लोक को चरितार्थ करके दिखाना चाहिए। इस श्लोक में गुरु को भगवान के समान कहा गया है।

डॉ. राधाकृष्णन अपनी बुद्धिमतापूर्ण व्याख्याओं, आनंददायी अभिव्यक्ति और हंसाने, गुदगुदाने वाली कहानियों से अपने छात्रों को मंत्रमुग्ध कर दिया करते थे। वे छात्रों को प्रेरित करते थे कि वे उच्च नैतिक मूल्यों को अपने आचरण में उतारें। वे जिस विषय को पढ़ाते थे, पढ़ाने के पहले स्वयं उसका अच्छा अध्ययन करते थे। दर्शन जैसे गंभीर विषय को भी वे अपनी शैली की नवीनता से सरल और रोचक बना देते थे।

वे कहते थे कि विश्वविद्यालय गंगा-यमुना के संगम की तरह शिक्षकों और छात्रों के पवित्र संगम हैं। बड़े-बड़े भवन और साधन सामग्री उतने महत्वपूर्ण नहीं होते, जितने महान शिक्षक। विश्वविद्यालय जानकारी बेचने की दुकान नहीं हैं, वे ऐसे तीर्थस्थल हैं जिनमें स्नान करने से व्यक्ति को बुद्धि, इच्छा और भावना का परिष्कार और आचरण का संस्कार होता है। विश्वविद्यालय बौद्धिक जीवन के देवालय हैं, उनकी आत्मा है ज्ञान की शोध। वे संस्कृति के तीर्थ और स्वतंत्रता के दुर्ग हैं।

उनके अनुसार उच्च शिक्षा का काम है साहित्य, कला और व्यापार-व्यवसाय को कुशल नेतृत्व उपलब्ध कराना। उसे मस्तिष्क को इस प्रकार प्रशिक्षित करना चाहिए कि मानव ऊर्जा और भौतिक संसाधनों में सामंजस्य पैदा किया जा सके। उसे मानसिक निर्भयता, उद्देश्य की एकता और मनकी एकाग्रता का प्रशिक्षण देना चाहिए। सारांश यह कि शिक्षा 'साविद्या या विमुक्तये' वाले ऋषि वाक्य के अनुरूप शिक्षार्थी को बंधनों से मुक्त करें।

डॉ. राधाकृष्णन के जीवन पर महात्मा गाँधी का पर्याप्त प्रभाव पड़ा था। सन्‌ 1929 में जब वे ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में थे तब उन्होंने 'गाँधी और टैगोर' शीर्षक वाला एक लेख लिखा था। वह कलकत्ता के 'कलकत्ता रिव्हयू' नामक पत्र में प्रकाशित हुआ था। उन्होंने गाँधी अभिनंदन ग्रंथ का संपादन भी किया था। इस ग्रंथ के लिए उन्होंने अलबर्ट आइंस्टीन, पर्ल बक और रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसे चोटी के विद्वानों से लेख प्राप्त किए थे। इस ग्रंथ का नाम था 'एन इंट्रोडक्शन टू महात्मा गाँधी : एसेज एंड रिफ्लेक्शन्स ऑन गाँधीज लाइफ एंड वर्क।' इस ग्रंथ को उन्होंने गाँधीजी को उनकी 70वीं वर्षगाँठ पर भेंट किया था।

अमरीका में भारतीय दर्शन पर उनके व्याख्यान बहुत सराहे गए। उन्हीं से प्रभावित होकर सन्‌ 1929-30 में उन्हें मेनचेस्टर कॉलेज में प्राचार्य का पद ग्रहण करने को बुलाया गया। मेनचेस्टर और लंदन विश्वविद्यालय में धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन पर दिए गए उनके भाषणों को सुनकर प्रसिद्ध दार्शनिक बर्टरेंट रसेल ने कहा था, 'मैंने अपने जीवन में पहले कभी इतने अच्छे भाषण नहीं सुने। उनके व्याख्यानों को एच.एन. स्पालिंग ने भी सुना था। उनके व्यक्तित्व और विद्वत्ता से वे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में धर्म और नीतिशास्त्र विषय पर एकचेअर की स्थापना की और उसे सुशोभित करने के लिए डॉ. राधाकृष्ण को सादर आमंत्रित किया। सन्‌ 1939 में जब वे ऑक्सफोर्ड से लौटकर कलकत्ता आए तो पंडित मदनमोहन मालवीय ने उनसे अनुरोध किया कि वे बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर का पद सुशोभित करें। पहले उन्होंने बनारस आ सकने में असमर्थता व्यक्त की लेकिन अब मालवीयजी ने बार-बार आग्रह किया तो उन्होंने उनकी बात मान ली। मालवीयजी के इस प्रयास की चारों ओर प्रशंसा हुई थी।

सन्‌ 1962 में वे भारत के राष्ट्रपति चुने गए। उन दिनों राष्ट्रपति का वेतन 10 हजार रुपए मासिक था लेकिन प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद मात्र ढाई हजार रुपए ही लेते थे और शेष राशि प्रधानमंत्री के राष्ट्रीय राहत कोष में जमा करा देते थे। डॉ. राधाकृष्णन ने डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की इस गौरवशाली परंपरा को जारी रखा। देश के सर्वोच्च पद पर पहुँचकर भी वे सादगीभरा जीवन बिताते रहे। 17 अप्रैल 1975 को हृदयाघात के कारण उनका निधन हो गया। यद्यपि उनका शरीर पंचतत्व में विलीन हो गया तथापि उनके विचार वर्षों तक हमारा मार्गदर्शन करते रहेंगे। 

Another Side 


शिक्षक के नाम पर कलंक " राधा कृष्णन "

 
राधा कृष्णन ने शिक्षा के क्षेत्र में क्या योगदान दिया ....? 
क्या उन्होंने कोई स्कूल / विद्यालय खोला ...?
क्या उन्होंने देश की शिक्षा नीति के लिए कुछ कार्य किआ ...?
क्या उन्होंने विभिन्न शिक्षण संस्थानों में निस्वार्थ भ्रमण किआ ...? 
क्या उन्होंने गरीबो की शिक्षा के लिए कोई प्रबंध किआ ...? 
क्या उन्होंने पिछडो / दलितों की शिक्षा के लिए कोई योगदान किआ ....? 
क्या उन्होंने शिक्षा / शिक्षण संबंधी कोई पुस्तक लिखी ...?
क्या उनका कोई एक भी भाषण है जो मात्र शिक्षा के लिए हो ...? 
क्या उन्होंने कभी अवैतनिक शिक्षण किआ ....?
क्या उन्होंने शिक्षण को धनार्जन का जरिया नहीं बनाया ...? 
क्या वो शिक्षण संस्थान के नियम / अनुशासन मानते थे ...? क्या वो समय से क्लास में जाते थे ....?
क्या उन्होंने एक भी छात्र को मुफ्त में शिक्षा दी ...? 
क्या उन्होंने एक भी छात्र के लिए फीस माफी / वजीफा / स्कालरशिप आदि की व्यवस्था की ? 
 
राधा कृष्णन शिक्षक के नाम पर कलंक थे ...उन्होंने अपने ही शोध छात्र जदुनाथ की थीसिस चोरी की (इस पर मुकदमा भी चला) जिन्होंने उस थीसिस को किताब के रूप में छपवा कर नाम कमाया.
:
थीसिस चोरी के जवाब में राधाकृष्णन सिर्फ इतना ही कहते रहे कि इत्तफाक से जदु्नाथ की थीसिस और मेरी किताब की सामग्री मिलती है..तर्क वही कि स्रोत एक था, विषय एक था...आदि आदि...अपनी किताब को जदुनाथ की थीसिस से अलग साबित नहीं कर पाए...ये मॉडर्न रिव्यू में छपे जदुनाथ के लेखों और राधाकृष्णन के प्रकाशित जवाबों से स्पष्ट होता है। अदालत के बाहर मामला सेटल करा लिया लेकिन जदुनाथ सिन्हा की थीसिस और राधाकृष्णन की किताब में पूरी पूरी समानता ऑन द रिकॉर्ड है। इससे वे इन्कार कर ही नहीं सकते थे। 

बाद में उन्होंने प्रकाशक से मिलकर (बहुत बाद में, एकदम शुरू में नहीं) यह साबित कराने की कोशिश की, कि किताब पहले छपने के लिए दे दी थी...पर प्रकाशक ने काम बाद में शुरू किया .... यानी सामग्री उनकी किताब की वही थी जो जदुनाथ की थीसिस में थी। एक अन्य प्रोफेसर बी एन सील को भी थीसिस एक्जामिन करने के लिए दी गई थी। उन्होंने पूरे मामले से खुद को अलग कर लिया..क्या करते..राधाकृष्णन के पक्ष में बड़े बड़े लोग थे, सबसे दुश्मनी हो जाती..और अंतरात्मा ने जदुनाथ के दावे का विरोध करने नहीं दिया।

Source : Internet

Nalanda University Truth | History and Facts

पुनर्निमित नालंदा विश्वविद्यालय ने 1 सितंबर 2014 से अपना पहला सत्र प्रारंभ किया -

पुनर्निमित नालंदा विश्वविद्यालय ने पटना से लगभग 100 किलोमीटर दूर बौद्ध तीर्थयात्री शहर राजगीर के अपने अस्थायी परिसर में 15 छात्रों के साथ 1 सितंबर 2014 से अपना पहला सत्र शुरू किया.विश्वविद्य
ालय ने पारिस्थितिकी और पर्यावरण अध्ययन के स्कूल और ऐतिहासिक अध्ययन के स्कूल की कक्षाओं के साथ अपना पहला सत्र 2014-15 शुरू कर दिया. वर्तमान में, विश्वविद्यालय में 10 शिक्षक हैं. विश्वविद्यालय ने छात्रों के लिए तीन दिवसीय उन्मुखीकरण कार्यक्रम के बाद अपने पहले सत्र को शुरू किया.

विश्वविद्यालय में काम का औपचारिक उद्घाटन मध्य सितंबर में होगा, जबकि पूरी तरह से आवासीय विश्वविद्यालय वर्ष 2020 तक पूरा हो जाएगा. उसके बाद यहाँ स्नातकोत्तर और डॉक्टरेट छात्रों के लिए सात स्कूल होंगे जिनमे विज्ञान, दर्शनशास्त्र और आध्यात्मिकता और सामाजिक विज्ञान सम्बंधित विषयों के पाठ्यक्रम चलेंगे. यह विश्वविद्यालय राजगीर में बनेगा जो कि प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय के स्थान से 12 किमी दूर है. प्राचीन विश्वविद्यालय 12वीं सदी तक खड़ा था जिसके बाद हमलावर तुर्की सेना ने उसे ढहा दिया था .

विश्वविद्यालय के शासी निकाय के सदस्यों में विभिन्न देशों के कई प्रसिद्ध अध्यापक है जिनमे सिंगापुर के पूर्व विदेश मंत्री जॉर्ज यीओ और विदेश मंत्रालय के सचिव अनिल वाधवा भी शामिल हैं. विश्वविद्यालय में दुनिया के 40 देशों से 1000 आवेदन आए लेकिन केवल 15 छात्रों (जिनमें 5 महिलाएं हैं) का चयन किया गया. चयनित छात्रों में जापान और भूटान से एक-एक छात्र हैं और शेष भारत से हैं. विश्वविद्यालय में चयन प्रक्रिया अभी भी चल रही है अतः कुछ और छात्रों को सितंबर 2014 में प्रवेश दिया जाएगा.

विश्वविद्यालय को प्रवेश की प्रक्रिया में अमेरिका, रूस, इंग्लैंड, स्पेन, जर्मनी, जापान, म्यांमार, ऑस्ट्रिया और श्रीलंका, अन्य देशों के अलावा पश्चिम एशिया और दक्षिण पूर्व एशियाई देशों से भी आवेदन प्राप्त हुए.

नालंदा विश्वविद्यालय का पुनरुद्धार-
नालंदा विश्वविद्यालय का पुनरुद्धार पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के प्रस्ताव के बाद किया गया. उन्होंने वर्ष 2006 में विश्वविद्यालय के पुनरुद्धार का प्रस्ताव रखा. संसद द्वारा नालंदा विश्वविद्यालय अधिनियम वर्ष 2010 में पारित कर दिया गया और 15 नवंबर 2010 को इसकी अधिसूचना के बाद विश्वविद्यालय अस्तित्व में आया. केंद्र सरकार ने विश्वविद्यालय के लिए 2700 करोड़ रुपए मंजूर किए हैं, जो कि 10 वर्षों में खर्च किया जाना है.

इसके अलावा, विश्वविद्यालय भारत सरकार और 18 पूर्व एशिया शिखर सम्मेलन (ईएएस) के देशों की एक पहल है. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की ब्रुनेई यात्रा के दौरान अक्टूबर 2013 में सात ईएएस देशों ने परियोजना के लिए अपनी प्रतिबद्धता के लिए एक समझौता किया. ईएएस के सात देश ऑस्ट्रेलिया, कंबोडिया, सिंगापुर, ब्रुनेई, न्यूजीलैंड, लाओस और म्यांमार थे.

इसके अलावा नवंबर 2013 में चीन ने भी परियोजना के लिए 1 मिलियन डॉलर प्रदान करने की प्रतिबद्धता की. यह प्रतिबद्धता मनमोहन सिंह की बीजिंग यात्रा के दौरान चीन द्वारा की गयी . सिंगापुर ने भी 5-6 मिलियन डॉलर दान करने का वचन दिया और ऑस्ट्रेलिया ने भी विश्वविद्यालय के लिए 1 लाख ऑस्ट्रेलियाई डॉलर प्रदान करने की योजना बनाई है.

प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय-
प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय गुप्त राजवंश शासन के दौरान पांचवीं शताब्दी में स्थापित किया गया था. यह बिहार में सीखने के लिए एक प्राचीन अंतरराष्ट्रीय केंद्र था जिसमें 5वीं शताब्दी से वर्ष 1197 के दौरान दुनिया भर और मुख्य रूप से पूर्वी एशिया और चीन से छात्रों को शिक्षा के लिए आकर्षित किया. प्राचीन समय में, नालंदा विश्वविद्यालय में दुनिया भर से हजारों विद्वान और विचारक आए.

यह कुतबुद्दीन ऐबक के सेनापति बख्तियार खिलजी के हमलावर तुर्की सेना के द्वारा वर्ष 1197 में ढहा दिया गया. ऐसा माना जाता है कि इसके विशाल पुस्तकालय की में लगी आग की ज्वाला कई दिनों तक जलती रही थी.

नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति - गोपा सभरवाल
विश्वविद्यालय के शासी निकाय के अध्यक्ष - अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन

 

ANOTHER SIDE

 
आप चाहते तो नालंदा के 1199 में तबाह होने और 1857 में अंग्रेजो द्वारा विश्व विद्यालय स्थापित किये जाने के मध्य के 658 साल की अवधि में आप एक नही ढेरो शिक्षक और ढेरो विश्व विद्यालय गढ़ सकते थे, भारत को शिक्षा का सिरमौर बना सकते थे।लेकिन नही किया। उलटे 658 साल बाद जब अंग्रेजो ने लोगो को उच्च शिक्षा देने के लिए 1857 में कोलकाता में विश्व विद्यालय स्थापना किया तो लोगो का ध्यान भटकाने के लिए गाय के चमड़े का बहाना कर मंगल पांडे से विद्रोह करवा दिया जबकि गाय के चमड़े का उपयोग पहले से हो रहा था।

इस 658 साल की अवधि में आप तमाम शासको के प्रशासन को नियंत्रित करते रहे, आपने फिरोज शाह तुगलक के लगाये जाजिया कर को अकबर से हटवा लिया लेकिन एक विश्व विद्यालय तक नही बनवा पाए। जिन महापुरुषों ने हम तक शिक्षा पहुंचानी चाही उसके साथ आपने क्या क्या नही किया।ज्योतिबा फुले जिसने भारत के इतिहास में लडकियों के लिए पहला स्कुल खोला उसे समाज से ही बहिष्कृत करवा दिया, उन्होंने अपनी पत्नी सावित्री फुले को शिक्षित कर शिक्षक बनाया तो आपने उसके विद्यालय जाते समय विष्ठा फेंका।

क्यों सर झुकाए,क्यों माने आपके गढ़े प्रतिमान को ? किया क्या है आपने हमारे लिए ?आपने तो कभी किसी के लिए स्कुल में अलग घड़ा रखा, अलग बैठाया, किसी का अंगूठा काटा, लोगो से भेदभाव किया और हमारे नायको ने सिर्फ हमारे लिए नही सबके लिए किया। हम कुछ नही करेंगे हमारे लिए जिन्होंने अपना जीवन दिया है उनके बलिदान और योगदान को बतायेंगे आपके गढ़े प्रतिमान अपने आप ध्वस्त होंगे।